Sunday, June 25, 2017

पत्थर



मैं एक पत्थर हूँ.
रंगीन कपड़ों से ढका हुआ.
सोने के अभूषणों से सजा हुआ.

जाने क्यों लोग मुझसे इतना आकर्षित होते है?
कुछ लोग रोज़ मेरे पास आकर अपनी समस्याएं बताते है.
वह मुझे समस्या सुलझाने के लिए जाने क्या क्या देते है.
दूध,फूल,फल,मिठाइयाँ,
जो न मांगो, वो भी मिल जाता है.

अब भला मैं, एक पत्थर, इन चीज़ों का क्या करूँ?
मेरे लिए एक चार-दिवारी घर भी बनाया है.

मेरे घर के बहार एक व्यक्ति प्रतिदिन बैठता है.
काँपता हुआ, बीमार, फटे कपड़ों वाला.
वह रोज़ मेरे पास आने वाले लोगों से खाने का एक दाना मांगता है.
पर बेचारे को कुछ मिलता ही नहीं!
शायद वह ही एक व्यक्ति है जिसपर मुझे तरस आता है.

वह लोग मेरे लिए कितना कुछ करते है,
जबकि मुझे उनकी मदद की आवश्यता भी नहीं है.
वह उस ज़रूरतमंद की सहायता क्यों नहीं करते?
मेरा मन अक्सर मुझसे यह प्रश्न पूछता है.

मैं तो पत्थर हूँ,
समझने की शक्ति नहीं रखता.
जाने क्यों ये शक्ति होकर भी मनुष्य इतना मूर्ख होता है.
कहाँ गयी उसकी समझ?


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