ज़री रुपी बूँदें इन बादलों की
गठरी से उतरती है.
स्वर्णीय घास के साथ वह एक
पवित्र हरी रजाई पिरोती हैं.
कैंची
रूपी सूरज ग्रीष्म में प्रवेश कर इस पावन धागे की डोर काट
देता है.
और सर्दी की वह शीतल हवाएं
इन कोमल धागों को तोड़ देती है.
आखिर ये हरा कम्बल भी कितने
रंग बदलता है,
कुदरत माँ के पिरोये धागों
की दिव्यता भी इन रंगों के साथ ही बदलती सी नज़र आती है.
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